मैं, लेखनी और जिंदगी
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ग़ज़ल
आँख से अब नहीं दिख रहा है जहाँ
आज क्या हो रहा है मेरे संग यहाँ
माँ का रोना नहीं अब मैं सुन पा रहा
कान मेरे ये दोनों क्यों बहरें हुए.
उम्र भर जिसको अपना मैं कहता रहा
दूर जानो को बह मुझसे बहता रहा.
आग होती है क्या आज मालूम चला
जल रहा हूँ मैं चुपचाप ठहरे हुए.
शाम ज्यों धीरे धीरे सी ढलने लगी
छोंड तनहा मुझे भीड़ चलने लगी.
अब तो तन है धुंआ और मन है धुंआ
आज बदल धुएँ के क्यों गहरे हुए..
जिस समय जिस्म का पूरा जलना हुआ
उस समय खुद से फिर मेरा मिलना हुआ
एक मुद्दत हुयी मुझको कैदी बने
मैनें जाना नहीं कब से पहरें हुए….
ग़ज़ल
मदन मोहन सक्सेना
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