मैं, लेखनी और जिंदगी
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ये कैसा समाजबाद
ये कैसा लोक संस्कृति का महोत्सब
जहां ना तो लोक के ही दर्शन हुए
और ना ही संस्कृति का दर्शन हुआ
केबल दिखाबा दिखाबा और दिखाबा
सम्बेदनहीनता की पराकाष्टा
एक तरफ सैफई तो दूसरी तरफ ऐसी जगह जहां लोक त्रस्त हैं
अपने बच्चों की जान माल की हिफाज़त नहीं कर पा रहें हैं
कहतें हैं न कि जगह बदलती है
माहौल बदल जाता है
ये युबा सी एम् के इलाके में देखने को मिल जाता है
आम आदमी के कष्ट बैसे के बैसे हैं
सिर्फ और सिर्फ आश्बासन देने बाले किरदार बदलतें हैं
और एक हम है
कि हर बार भरोसा कर लेते हैं
चोट के बाबजूद कुछ सिखने को तैयार नहीं हैं
और ये चमकते चेहरें (फ़िल्मी कलाकार )
जो कोई इनको पैसा दे
उसके दरबाजे आ जायेंगें
खेल (मनोरंजन ) दिखाने के लिए
इनके लिए लोगों की परेशानी
कोई महत्ब नहीं रखती है
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